रचना प्रियदर्शिनी : 14 अप्रैल, 2014 को भारतीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा देश के ट्रांसजेंडर समुदाय को तृतीय श्रेणी का दर्जा दिया और उन्हें ओबीसी श्रेणी के रूप में सामाजिक पहचान दी. इसके साथ ही सभी सरकारी और गैर-सरकारी निकायों को यह निर्देश दिया गया कि वे उनके साथ शिक्षा और नौकरी में किसी तरह का भेदभाव नहीं करेंगे.
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को यह आदेश दिया था कि वे थर्डजेंडर कम्यूनिटी के सामाजिक कल्याण के लिए योजनाएं चलाएं, उनके प्रति समाज में हो रहे भेदभाव को खत्म करने के लिए जागरूकता अभियान चलाएं, इस समुदाय के लिए स्पेशल पब्लिक टॉइलट बनवाएं, उनके स्वास्थ्य संबंधी मामलों को देखने के लिए स्पेशल डिपार्टमेंट बनाये जाएं और अगर कोई व्यक्ति अपना सेक्स चेंज करवाता है, तो उसे उसके नये सेक्स के आधार पर पहचान मिले. इसमें किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता. इस आदेश के पांच सालों बाद भी स्थिति यह है कि ट्रांस समुदाय अपने अधिकारों को लेकर हर स्तर पर आज भी संघर्ष करने को मजबूर है.
गत वर्ष नेशनल मीडिया फाउंडेशन के तहत बिहार तथा झारखंड में किये गये एक फेलोशिप सर्व में उपलब्ध आंकड़ों और इन दोनों राज्यों में रहनवाले कुछ ट्रांसजेंडर प्रतिनिधियों से बातचीत के आधार पर निम्नलिखित प्रमुख कारण मेरे सामने आये, वह कुछ इस प्रकार है :
राजनीतिक उदासीनता : वर्ष 2010 में बिहार समाज कल्याण विभाग द्वारा ट्रांसजेंडर्स समुदाय के उत्थान के लिए ट्रांसजेंडर बोर्ड का गठन किया गया है. इसके गठन से लेकर अब तक मात्र तीन बार ही बैठक हुई हैं और उसमें भी केवल ट्रांसजेंडर इश्यूज पर चर्चाएं ही हुई हैं. जमीनी स्तर पर ऐसा कोई भी ठोस निर्णय नहीं लिया गया, जिसका प्रत्यथ लाभ ट्रांसजेंडर समुदाय को मिल सके. वहीं झारखंड की बात करें, तो यहां ऐसे किसी भी निकाय का गठन भी नहीं किया गया है.
चुनाव आयोग की उदासीनता : देश की आजादी के 40 वर्षों बाद 1994 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा ट्रांसजेडर्स समुदाय को भारतीय लोकतंत्र के चुनावों में वोट डालने का अधिकार दिया गया. वर्ष 2012 में चुनाव आयोग ने मतदाता सूची की ‘अन्य’ कैटेगरी में उनका पंजीकरण स्वीकार किया. वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, देश में कुछ ट्रांसजेंडर्स की आबादी करीब 4.9 लाख है.
बावजूद इसके राष्ट्रीय चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार, गत वर्ष लोकसभा चुनावों में 38,325 लोगों को ‘अन्य’ कैटेगरी में अधिसूचित किया गया. पिछले पांच वर्षों में इस संख्या में मात्र 15,306 की बढ़त ही हुई है. वर्ष 2014 में पहली बार ट्रांसजेंडर वोटर्स का पंजीकरण शुरू किया गया. तब से लेकर अब तक मात्र छह ट्रांसजेंडर्स ने ही आम चुनाव लड़ा है, पर अफसोस कि उनमें से कोई भी अब तक जीत नहीं पायी हैं.
वर्तमान में बिहार विधानसभा चुनावों के संदर्भ में बात करें, तो ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट रेशमा प्रसाद का कहना है कि बिहार में करीब 40 हजार ट्रांसजेडर्स हैं, जिनमें से मात्र 2406 ट्रांसजेंडर्स ही अपनी वास्तविक पहचान के साथ मतदाता सूची में शामिल हो पाये हैं. बाकी कई ऐसे भी हैं, जो पुरुष या महिला मतदाता के रूप में पंजीकृत हैं. अन्य ट्रांसजेंडर कार्यकर्ताओं का भी कहना है कि उनकी आबादी इससे कई गुना अधिक है, लेकिन प्रशासनिक उदासीनता के अभाव में वे चुनावों में अपनी भागीदारी निभाने में असमर्थ हैं.
हालांकि इस बार बिहार विधानसभा चुनावों में एक सकारात्मक पहल करते हुए चुनाव आयोग द्वारा पटना की ट्रांसवुमेन मोनिका दास को बिहार की पहली ट्रांसजेंडर पोलिंग ऑफिसर के तौर पर नियुक्त किया गया है. इसके पहले वर्ष 2016 में पश्चिम बंगाल में रिया सरकार नामक ट्रांसवुमेन को पॉलिंग ऑफिसर नियुक्त किया गया था. वह इस पद पर नियुक्त होनेवाली देश की पहली ट्रांसजेंडर थीं.
जिस तरह चुनाव आयोग द्वारा महिला और पुरुष मतदाताओं को मतदाता सूची से जोड़ने के लिए विशेष अभियान चलाया जाता है, वैसा ही अभियान ट्रांसजेंडर वोटर्स के लिए भी चलाना चाहिए, ताकि वे भी अपने अधिकारों का समुचित लाभ उठा सकें.
जरूरी डॉक्यूमेंट्स का अभाव : आमतौर से किसी भी सरकारी प्रमाण पत्र को बनवाने के लिए कई तरह के सरकारी कागजात और औपचारिकताओं की जरूरत पड़ती है. सामाजिक रूढियों से निपटने के अलावा किसी ट्रांस पर्सन को इन कागजात को जुटाना भी एक बड़ी परेशानी है. इनके अभाव में कई ट्रांसजेंडर्स आज भी खुद को मतदाता सूची में नामांकित करवाने या फिर अन्य जनकल्याणकारी योजनाओं का लाभ उठाने से वंचित हैं. इस कागजातों के अभाव में उन्हें रोजगार पाने में भी दिक्कत होती है.
ट्रांसजेंडर्स की उदासीनता : ट्रांसजेंडर्स के जीवन का सबसे का सबसे दुखद पहलू यह है कि वैसे ट्रांसजेंडर्स, जो पढ़-लिख कर अपना जीवन संवारना चाहते हैं, उन्हें कई बार अपने ही समुदाय के अन्य सदस्यों के विरोध का सामना करना पड़ता है. वर्ष 2016 में पटना के एक कॉलेज से मीडिया एंड एनिमेशन की पढाई पढ़ रहीं दो किन्नरों को, किन्नरों के ही एक समूह ने पढाई बंद करने के लिए धमकाया और उनके साथ बदतमीजी भी की.
बाद में किन्नर समुदाय के लिए काम कर रही ट्रांसवुमेन रेश्मा प्रसाद द्वारा उन दो किन्नरों को वहां से आजाद कराया गया. इसके अलावा, कई ट्रांसजेंडर्स ऐसे भी हैं, जिन्होंने भिक्षावृति, बधाई गाने और सेक्सवर्क को ही अपना नसीब मान लिया है. उनमें बदलाव के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण देखने को मिलता है. ऐसे ट्रांसजेंडर्स खुद अपनी ही कम्युनिटी के बदलाव की चाह रखनेवाले ट्रांसजेंडर्स को पसंद नहीं करते.
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सामाजिक रुढ़ि : यह सदियों से चली आ रही समस्या है, जिसकी शुरुआत घर से ही होती है. किसी ट्रांसजेंडर समुदाय को सबसे पहला विरोध अपने घर-परिवार के लोगों से झेलना पड़ता है. कहते हैं- किसी इंसान की सबसे बड़ी ताकत उसका परिवार और उसका आत्मबल होता है.
ऐसे में जब जीवन की शुरुआत ही पारिवारिक उपेक्षा से हो, तो आत्मबल का निर्माण भला कैसे होगा! अत: जरूरी है कि सबसे पहले परिवार के लोग अपने ट्रांसजेंडर बच्चे को अपनाएं और उन्हें पूरा सपोर्ट करें, ताकि उनमें दुनिया के नकारात्मक पहलुओं से लड़ने की ताकत पैदा हो सके. जिन ट्रांसजेंडर्स को उनके परिवार ने सपोर्ट किया है, आज वे समाज में एक प्रतिष्ठित स्थान पर हैं. इसका एक बड़ा उदाहरण है- बिहार की पहली ट्रांस चुनाव कर्मी मोनिका दास.