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अब नहीं मिल पाएगा 'पारले-जी' का स्वाद !

by desk
2 August, 2016
in न्यूज़
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नई दिल्ली : हिंदुस्तान के बच्चे, जवान और बूढ़े सभी लोगों के दिलों पर राज करने वाला बिस्कुट ‘पारले-जी’ अब नहीं मिलेगा. इसका कुरकुरा स्वाद लोग नहीं ले पाएंगे. झोपड़ी से लेकर रईसजादों की पहली पसंद रहा पारले हमारे लिए अब एक सपना और गुजरे दौर की बात होगी.
ऐसा इसलिए हो रहा है क्यूंकि कंपनी प्रबंधन ने एक यूनिट बिलेपार्ले को बंद करने का फैसला लिया है. उम्मीद यह भी जताई जा रही है कि आने वाले समय में सभी यूनिटें बंद की जा सकती हैं. हालांकि अभी यह कहना मुश्किल होगा कि पारले-जी, बिस्कुट की दुनिया से अलविदा हो जाएगा या फिर मिलता रहेगा.
लेकिन करोड़ों भारतीयों की पहली पसंद पर सवाल तो खड़े हो ही चले हैं. कंपनी ने लगातार हो रहे घाटे के कारण पारले का उत्पादन ही नहीं, बल्कि मुंबई के बिले पार्ले उपनगर में स्थित यूनिट को ही बंद कर दिया है.
यह यूनिट पूरे 10 एकड़ में फैली थी. इसकी स्थापना 1929 में की गई थी, लेकिन बिस्कुट का उत्पादन 1939 से शुरू हुआ था. इसमें 300 से अधिक कर्मचारी काम करते थे, जिन्हें वीआरएस दे दिया गया है. तकरीबन 90 सालों से पारले-जी स्वाद और बिस्कुट बाजार की दुनिया में लोगों की जुबान पर छाया था. पारले-जी के पैक पर बच्चे की छपी तस्वीर आज भी लोगों के जेहन में वैसे ही बनी है. कंपनी उस बच्चे की तस्वीर का उपयोग सालों से अपने प्रचार के लिए विज्ञापन की दुनिया में करती आ रही थी.
उसने कभी अपना लोगो नहीं बदला. पैक पर छपा मासूम सा बच्चा आज भी पारले-जी की पहचान है. गरीब और आम परिवारों में दिन की शुरुआत पारले से होती है. बच्चों से लेकर बड़ों तक की यह पहली पसंद बना. कभी-कभी सामान्य और आम परिवारों में समय से भोजन उपलब्ध न होने से बच्चे और कामकाजी लोग चाय और पारले के साथ ही काम चला लिया करते रहे हैं. लेकिन अब उनके लिए यह एक सपना होगा.
कंपनी प्रबंधन इसके पीछे चाहे जो भी तर्क दे, लेकिन बात हजम नहीं होती है. कंपनी का बंद होना आम और खास सभी को खल रहा है. पारले एक कंपनी और उत्पादभर नहीं रहा था, उसकी पहचान एक सोच के रूप में हो चुकी थी. जिस तरह कभी मैगी और कार बाजार में मारुति का जलवा रहा, वही बात पारले-जी के साथ रही.
बेहद कम कीमत में पारले ने आम हिंदुस्तानियों को जिस तरह के स्वाद की दुनिया से परिचय कराया, वह बात और दूसरों में नहीं मिली. बिस्कुट की दुनिया में हजारों ब्रांड उपलब्ध हैं, लेकिन जितना नाम इस कंपनी ने कमाया शायद उतना किसी ने नहीं.
कम कीमत और स्वाद में बेजोड़ होने के कारण यह आम भारतीयों से जुड़ गया था और इसने अपनी क्वालिटी बरकरार रखी. कंपनी प्रबंधन का दावा है कि लगातार उत्पादन गिर रहा था, जिससे कंपनी को घाटा हो रहा था.
पिछले सप्ताह कंपनी में कुछ दिन के लिए उत्पादन बंद भी कर दिया गया था. कहा यह जा रहा है कि जिस गति से मुंबई विकास की तरफ बढ़ी उस गति से पारले-जी यानी कंपनी आगे नहीं बढ़ पाई. लेकिन यह बात लोगों को नहीं पच पा रही है.
सबसे अहम सवाल है कि प्रबंधन कंपनी बंद करने और कर्मचारियों को बीआरएस देने के लिए चाहे जो बहाना ढूंढ़े, लेकिन इसकी दूसरी वजह ही लगती है. सवाल उठता है कि कंपनी घाटे में क्यों चल रही थी? 90 साल पुरानी जिस कंपनी का सालाना करोबार 10 हजार करोड़ रुपये का रहा हो, उस कंपनी को भला घाटा कैसे होगा?
बिस्कुट बाजार में अकेले पारले-जी की बाजार हिस्सेदारी 40 फीसदी रही. यानी पूरे बाजार पर जिसका लगभग आधा हिस्सा रहा हो, भला उस कंपनी को मुनाफा कैसे नहीं होगा और उत्पादन क्यों गिरेगा? वह भी जब कंपनी के दूसरे उत्पाद भी बाजार में उपलब्ध हों जिनकी बाजार हिस्सेदारी 15 फीसदी रही है.
यह कंपनी चॉकलेट और मैंगो बाइट के अलावा दूसरे उत्पाद भी बनाती थी, जिससे कंपनी को बंद करने के पीछे प्रबंधन का तर्क आम लोगों को नहीं पच रहा है. कंपनी को बंद करना और उसे चलाना उसके प्रबंधन का मामला है. लेकिन असलियत यह है कि जिस जगह कंपनी स्थापित रही वह मुंबई का हृदय स्थल है.
कंपनी के प्रबंधन का दावा अजीब है. उसका दावा है कि उत्पादन लगातार गिर रहा था. इसका मतलब था कि बाजार में कंपनी की डिमांड गिर रही थी, जिससे उत्पादन कम हो रहा था. लेकिन बिस्कुट बाजार में जिस कंपनी का 40 फीसदी कब्जा हो उसके लिए यह बात नहीं पचती नहीं कि बाजार में बिस्कुट की डिमांड कम हो रही थी.
दूसरी बात है कि क्या सिर्फ मुंबई यूनिट का उत्पादन गिर रहा था या फिर देशभर में जहां पारले का उत्पादन होता है उन यूनिटों में भी यह स्थिति है. अगर दूसरी जगहों पर इस तरह की बात नहीं थी तो मुंबई में यह कैसे हो सकता है? कंपनी बंद होने के पीछे रीयल स्टेट बाजार का भी दबाव काम कर सकता है, क्योंकि वहां की जमीन कीमतों में भारी उछाल बताया जा रहा है.
बिलेपार्ले में 25 से 30 हजार रुपये स्क्वायर फीट जमीन बिक रही है. दूसरी बात वहां जमीन अधिक उपलब्ध नहीं हो सकतीं, क्योंकि यह बेहद पुराना उपनगर है.
यूनिट बंद होने के पीछे यह बात भी हो सकती है कि कंपनी रीयल स्टेट में कदम रखना चाहती हो या उस जमीन का उपयोग दूसरे किसी काम में करना चाहती हो. लेकिन प्रबंधन की तरफ से यह साफ नहीं हुआ कि कंपनी बंद होने के बाद उस जमीन का क्या होगा, क्योंकि यहां उसका मुख्यालय भी है.
दूसरी बात जिन कामगारों को वीआरएस दिया गया है, उनका भविष्य क्या होगा. इस तरह के कई अहम सवाल हैं जिसका जवाब कंपनी को देना चाहिए. महज उत्पादन की बात सामने लाकर कंपनी को बंद करना किसी रणनीति का हिस्सा हो सकता है.
देशभर के लोगों को इससे लगाव रहा है. सरकार को इस मामले में हस्तक्षेप कर स्थिति साफ करनी चाहिए, क्योंकि इससे जहां सैकड़ों लोग बेगार हो गए हैं. वहीं यह लोगों की भावना से जुड़ा मामला भी है.
यह मेक इन इंडिया पॉलिसी के लिए अच्छी बात नहीं है. सरकार इस मामले की जांच कराकर सच्चाई सामाने लाए. इस तरह अगर कंपनिया बंद होती रहेंगी तो फिर सरकार की पॉलिसी का क्या मतलब होगा.

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