मथुरा : मथुरा जो कान्हा की जन्मनगरी कही जाती है. इस मथुरा में कान्हा की पोशाकों, मुरली और श्रृंगार के सामान बनते हैं और दुनिया के कोने कोने तक जाते हैं. दावा है कि इस साल करीब 300 करोड़ की पोशाकें थोक बाजारों में गई हैं. मथुरा सिर्फ बाजार ही नहीं, भाईचारे की अनूठी मिसाल भी है.
यहां के बाजारों में बुनकरों की टीम कपड़े को खूबसूरती देने में दिन-रात जुटी रहती है. हाथों से एक से बढ़कर एक खूबसूरत डिजाइन उकेरी जाती है. इन्हीं कपड़ों से तैयार होती है खूबसूरत पोशाक, जिनमें संज संवरकर लड्डू गोपाल सबका मन मोह लेते हैं.
मथूरा में हर साल इसी तरह कान्हा के लिए खूबसूरत और रंगबिरंगी पोशाकें बहुत बड़े पैमाने पर तैयार की जाती हैं. सिर्फ पोशाकें ही नहीं, कान्हा की बांसुरी, मोरपंख, मुकुट, मालाएं जैसी एक से बढ़कर चीजें भी यही लोग तैयार करते हैं और ये देश के अलावा विदेशों तक जाती हैं.
कान्हा की नगरी मथुरा में उनसे जुड़े सामानों के इस बाजार से इस साल करीब 300 करोड़ की पोशाकें देश भर की थोक दुकानों में पहुंची हैं.
जन्माष्टमी से करीब दो महीने पहले मथुरा के इस बाजार में बुनकर और कारीगर अपने काम में जुट जाते हैं. कुछ साल पहले तक वाराणसी कान्हा के मुकुट बनाने की सबसे बड़ी मंडी हुआ करता था. लेकिन सस्ती लागत और बेहतरीन कारीगरी की बदौलत कान्हा की पोशाकों के अलावा दूसरे सामानों का भी सबसे बड़ा हब मथुरा और वृंदावन बन चुका है, अकेले मथुरा जनपद में ही इस समय 500 से ज्यादा ऐसी छोटी बड़ी यूनिट हैं जिनमें करीब 20 हजार लोग इस कारोबार में लगे हुए हैं.
नंदलाला के ये लिबास ज्यादातर जहां हिंदू कारीगर तैयार करते हैं तो करीब 80 फीसदी मुस्लिम कारीगर अपने बेजोड़ हुनर के जरिए इन लिबासों की खूबसूरती में चार चांद लगा देते हैं. एक तरह से ये भाईचारे की अनूठी मिसाल भी है.
वैसे तो साल भर मथुरा और वृंदावन में ये काम चलता है. लेकिन सबसे ज्यादा काम जन्माष्टमी के दौरान होता है. इस सीजन में ये लोग 15 से 16घंटे तक काम करते हैं.