भोपाल : यूं तो कंस का वध महाभारत काल में हुआ था लेकिन मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर ज़िले में कंस वध की परम्परा लगभग 150 सालों से अनवतरत चली आ रही है। इसके लिए बाक़ायदा एक गांव से भगवान का रथ आता है और एक गांव से कंस का। दोनों आमने-सामने होते हैं और उसके बाद कंस का वध किया जाता है।
इस बार इस लोक परम्परा को नया स्वरुप देते हुए कंश के वध के प्रतीक के तौर पर नशा,गंदगी, अंधविश्वास,खुले में शौच जैसे दानव का वध किया गया।
नरसिंहपुर का मुड़िया एक मात्र ऐसा गांव है जहां आज भी कंस वध होता है और इससे जुड़ी कुछ ख़ास मान्यताएं भी हैं। नरसिंहपुर ज़िला मुख्यालय से लगा हुआ ये गांव है जहां होता है बुराई के कंस का वध।
पारम्परिक रूप से मनाये जाने वाले इस उत्सव को लेकर अनेक किवदंतियां भी है।
ग्रामीण बताते है कि लगभग 150 साल पहले जब गांव में महामारी फैली तो भगवान ने सपने में आकर कहा कि बीमारी और बुराई का अंत करने के लिए गांव के प्रत्येक घर से कच्ची मिट्टी लाकर कंस को बनाये और उसका वध करे, जिससे तुम्हारे सारे कष्ट दूर हो तभी से ये परम्परा चली आ रही है।
एक गांव से भगवान का वाहन आता है और फिर दूसरे गांव में कंस के दानव और कंस का युद्ध में वध किया जाता है।
एक और मान्यता के अनुसार बारिश के बाद किसानों की अच्छी पैदावार से उपजी खुशहाली और उन्नति के साथ-साथ बुराई का अंत हो इसलिए गांव के लोग इस परम्परा को निभाते आ रहे है।
यहां कंस का वध भी व्यवहारिक न होकर सांकेतिक होता है। पहले वाहन से आकर कृष्ण भगवान बाल्य रूप में आपने सारथी के कंधो में सवार होकर अपनी सेना के साथ कंस की सेना से युद्ध करते है और बांस की रेखा को पार करने की कोशिश करते है।
कंस की मुकुट पर कांसे की सींक लगाई जाती है जिसे दानवों को युद्ध में पराजित करने के बाद भगवान कृष्ण कंस की मुकुट से निकाल लेते है तो कंस की हार स्वरुप उसका वध माना जाता है।
इस लोक उत्सव में दूर-दूर के लोग भगवान के बाल अवतार और बुराई के स्वरुप कंस के संग्राम को देखने आते है।
बुराई पर अच्छाई की जीत को लेकर मनाये जाने वाले इस उत्सव को पीढ़ी दर पीढ़ी मनाया जा रहा है। ग्रामीण बताते है कि पिछले 150 बर्षों से ये परम्परा चली आ रही है।