रचना प्रियदर्शिनी : पिछले महीने डिजिटल प्लेटफॉर्म डिज्नी प्लस हॉटस्टार पर राघव लॉरेंस द्वारा निर्देशित और अक्षय कुमार द्वारा अभिनीत ट्रांसजेंडर फिल्म ‘लक्ष्मी’ रिलीज हुई। यह फिल्म साउथ की सुपरहिट फिल्म ‘कंचना’ का हिंदी रीमेक है, जिसमें मुख्य भूमिका तापसी पन्नू ने निभायी है।
शुरुआत से यह फिल्म विवादों का हिस्सा रही। मसलन- पूर्व में इस फिल्म का नाम ‘लक्ष्मी बॉम्ब’ था, जिसे लेकर काफी हो-हंगामा मचा। साथ ही, इस फिल्म के निर्माता-निर्देशक पर लव जिहाद को भड़काने का आरोप भी लगा। कारण, एक ओर तो यह फिल्म किन्नरों की जिंदगी और सामाजिक-आर्थिक स्थिति को फोकस करती है।
दूसरे, इस फिल्म के मुख्य अभिनेता अक्षय कुमार और अभिनेत्री कियारा आडवाणी के बीच में हिंदू-मुस्लिम लव एंगल दिखाया गया है। यह फिल्म देखने में हॉरर कमेडी जरूर है, लेकिन यह एक बेहतरीन सोशल मैसेज भी देती है।
फिल्म ट्रांसजेंडर, हिंदू और मुस्लिम को लेकर समाज में मौजूद संकीर्ण सोच पर प्रहार करने की कोशिश करती है. यह सोच अच्छी है, लेकिन ‘चूड़ियां पहन लूंगा’, जैसी कहावतों से, महिलाओं का मखौल बनाने की ही कोशिश इस फिल्म को थोड़ा कमतर बना देती है। फिल्म में दो लोगों ने ट्रांसजेंडर का किरदार निभाया है। पहले- शरद केलकर, जो कि असली ट्रांसजेंडर बने हैं और कुछ हद तक अपनी भूमिका के साथ न्याय भी करते हैं।
दूसरे- अक्षय कुमार, जिनके ऊपर गाहे-बगाहे एक ट्रांसजेंडर की रूह का साया काबिज हो जाता है, जिसकी वजह से वह एक किन्नर की तरह व्यवहार कर सकते हैं। एक तरीके से कहें, तो फिल्म में अक्षय कुमार ने ‘नकली ट्रांसजेंडर’ की भूमिका निभायी है, तो यह काफी हद तक सही ही होगा।
दरअसल हमारी भारतीय फिल्मों की एक बड़ी समस्या है और वो ये कि उसे फिल्मों में ट्रांसजेंडर या वेश्या के किरदार का चटखारा मसाला तो चाहिए, लेकिन इस भूमिका को वो वास्तविक जीवन के उक्त किरदारों से करवा कर ‘नकली किरदारों’ का सहारा लेते हैं। इससे उक्त किरदार से जुड़ी भावनाएं या संवेदनाएं सही तरह से अभिव्यक्त नहीं हो पातीं।
उदाहरण के तौर पर, फिल्मों की शुरुआती सफर को देखें, तो एक समय ऐसा भी था, जब महिला किरदारों की भूमिका को भी पुरुषों पात्र निभाया करते थे। उस वक्त की तात्कालिक परिस्थिति के मद्देनजर वह कुछ हद तक सही भी था और काफी हद तक मजबूरी भी, लेकिन आज अगर हम उन फिल्मों को देखें, तो हमें वह पूरी तरह से नौटंकी ही लगती है।
कारण, एक महिला पात्र के कोमल हाव-भावों, उसकी शारीरिक लचक, उसकी महीन बोली आदि को एक पुरुष पात्र चाहकर भी हूबहू पर्दे पर नहीं उतार सकता। यही वजह है कि जब फिल्मी पर्दे पर महिलाओं की एंट्री हुई, तो दर्शकों ने उसे हाथों-हाथ लिया और तब से लेकर अब तक फिल्मों में महिला किरदार एक अहम भूमिका निभाती आ रही हैं।
ठीक इसी प्रकार, अब तक जितनी भी फिल्मों में हमने देखा या देख रहे हैं, उन सबमें ट्रांसजेंडर का किरदार कोई महिला या पुरुष ही निभाता आ रहा है, इसलिए वह किरदार कहीं न कहीं बस एक मजाक का पात्र बन कर रह जाता है। उसकी बातें, उसकी समस्याएं या उसके जीवन की जटिल परिस्थितियां कभी भी दर्शकों के अंतस को छू ही नहीं पाती।
यह भी पढ़ें… https://www.rajpathnews.com/indias-first-shelter-home-lgbtqia-community-vadodara-gujarat
आज के तथाकथित ‘आधुनिक समाज’ में एक ट्रांसजेंडर की स्थिति क्या है, इससे लगभग हम सभी वाकिफ है। ज्यादातर ट्रांसजेंडर अपने घर-परिवार, शिक्षा, रोजगार, सरकारी योजनाओं के लाभ, सामाजिक सम्मान आदि से वंचित हैं। उनकी इस पीड़ा को ‘तथाकथित सामान्य’ माने जानेवाले हम या आप जैसे लोग शायद ही समझ सकते हैं, क्योकि एक कहावत है ना कि- ’जाके पैर ना फटे बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई’ यानी जिसने जो दंश या पीड़ा झेली ही नहीं हो, वो उसकी तकलीफ को क्या समझ सकता है।
बेहतर होगा कि हीरो, हीरोइन या अन्य सामाजिक किरदारों की तरह फिल्मों में ट्रांस किरदारों की भूमिका एक ट्रांस पर्सन ही निभाये। तभी दर्शक उसे सीरियसली लेंगे और उनकी समस्याओं या उनके जुड़े विभिन्न पहलुओं पर गंभीरता से विचार कर पायेंगे। साथ ही, इससे उनके लिए रोजगार का एक नया अवसर भी पैदा होगा और उनकी आर्थिक-सामाजिक स्थिति बेहतर हो पायेगी।