छिंदवाड़ा : मध्य प्रदेस के छिंदवाड़ा में आस्था के नाम पर 300 सालों से खूनी खेल खेला जा रहा है. जहा जश्न के दौरान पत्थरबाजी होती है जिसमे एक दूसरे को लहुलूहान करने के लिए ये जश्न मनाया जाता है. पत्थर युद्ध में कोई मरे लेकिन ये पत्थर युद्ध आज भी हो रहा है.
आस्था को अंधविश्वास की भट्टी में झोंककर यहां पत्थरबाजी का खेल़ खेला जा रहा है और परंपरा के नाम पर एक दूसरे का खून बहाया जा रहा है. छिंदवाड़ा में सालों से पत्थर मारने की ये परंपरा चली आ रही है. कोई न तो इस परंपरा को रोकने वाला है और ना ही खून बहाने से रोकने के लिए कोई टोकने वाला.
जो लोग हाथ में पत्थर लेकर इस युद्ध में योद्धा बने हैं उनमें खून बहाने की सनक सवार है. दूसरे गांव के लोगों के शरीर से खून बहाने की जिद को लेकर दोनों तरफ के लोग एक झंडे के करीब पहुंचना चाहते हैं. एक तरफ हैं पाढुरना गांव के लोग तो नदी के दूसरी तरफ सांवर गांव वाले लोग.
जिस भी गांव के लोग झंडे को ले जाएंगे वही इस पत्थर युद्ध का विजेता बनेगा. परंपरा के नाम पर तीन सौ साल से चले आ रहे गोटमार मेले के इस युद्ध को पुलिस वाले भी नहीं रोकते. बल्कि सैकड़ों पुलिस वाले और घायलों के इलाज के लिए प्रशासन की ओर से यहां एंबुलेंस की व्यवस्था की जाती है. अस्थायी अस्पताल बनाए जाते हैं जहां घायलों का इलाज होता है.
इस साल इस युद्ध में 403 लोग जख्मी हुए हैं. जिसके बाद 61 लोगों को प्राथमिक स्वस्थ्य केंद्र में लाया गया. वहीं घुटने में चोट के बाद दो लोग नागपुर रेफर हुए हैं.
पत्थर युद्ध की कहानी के बारे में कहा जाता है कि तीन सौ साल पहले 17वीं शताब्दी में सावरगांव की लड़की को पाढुरना गांव के लड़के से प्यार हुआ था. दोनों ने बाद में शादी कर ली और फिर गांव से भागने के दौरान दोनों के गांववालों ने इस नदी के पास उन्हें घेर लिया. दोनों पर पत्थर बरसाए गए जिसमें जख्मी होकर उनकी मौत हो गई. बाद में गांव वालों को इसका अफसोस हुआ और तब से उनकी याद में दोनों गांव वाले इस तरह का खूनी खेल खेलते हैं.