फिल्म समीक्षा : ‘दो लफ्जों की कहानी’
सरहदें बदलने से क्या प्रेम कहानियां भी बदल जाती हैं? पता नहीं, लेकिन ये पता लगाना जरूरी है कि दीपक तिजोरी की ‘दो लफ्जों की कहानी’ मूल रूप से किस फिल्म से प्रेरित है।
कहा जा रहा है कि ये फिल्म एक कोरियाई फिल्म ‘आलवेज’ (2011) की कहानी पर बनी है। ‘आलवेज’ की तर्ज पर ही पिछले साल कन्नड़ में ‘बॉक्सर’ नामक फिल्म रिलीज हुई थी, जबकि ‘आलवेज’ का मेन प्लाट साल 2010 में आयी बॉलीवुड फिल्म ‘लफंगे परिंदे’ से प्रेरित दिखता है, जो 1978 में आयी अमेरिकी फिल्म ‘आईस कैसल’ और 1999 में आयी एक तलिम फिल्म ‘तुल्लाद मनमम थुल्लुम’ से आंशिक रूप से प्रेरित थी।
थोड़ा और पीछे जाएं तो इन तमाम फिल्मों की जड़ में बालू महेन्द्र की फिल्म ‘सदमा’ (1983) की छवि भी दिखती है, जो बालू की अपनी ही एक तमिल फिल्म का रीमेक थी। तो आखिर इस फिल्म का मूल भाव आया कहां से। शायद और थोड़ी खोजबीन करें तो इसी तर्ज पर कोई फ्रेंच या ईरानी फिल्म भी निकल आए।
बहरहाल, ये कहानी है मलेशिया में रहने वाले एक युवक सूरज (रणदीप हूडा) की जो पार्ट टाइम बॉक्सर है। एक दिन सूरज की मुलाकात जेनी (काजल अग्रवाल) से होती है, जो देख नहीं सकती। सूरज को जेनी से प्यार हो जाता है। वह उससे शादी करना चाहता है।
एक दिन उसे पता चलता है कि जेनी की आंखों की रोशन उसकी वजह से ही गयी थी। खुद को कुसूरवार मानते हुए वह जेनी का ऑपरेशन कराने की ठान लेता है ताकि वह फिर से देख सके। सूरज को ऑपरेशन के लिए लाखों रुपये की जरूरत है। पैसों के जुगाड़ के लिए अब उसे एक बॉक्सिंग फाइट जीतनी है, जिसमें उसकी जान भी जा सकती है।
ऐसा नहीं है कि ये प्रेम कहानी केवल सूरज और जेनी के ईर्द-गिर्द की घूमती है। इसमें सूरज के अतीत के अलावा उसकी बॉक्सिंग की दुनिया को भी समेटा गया है। ये भी दिखाया गया है कि आंखों की रोशनी मिलने के बाद जेनी कैसे सूरज से दूर हो जाती है। और क्यों सूरज को अपनी पहचान मिटा कर जेनी से दूर जाना पड़ता है। ये तमाम बातें फिल्म में बांधे तो रखती हैं, लेकिन ये सवा दो घंटे की फिल्म इंटरवल से पहले बहुत धीमी गति से आगे बढ़ती है।
किसी सफल फिल्म का रीमेक बनाते समय अक्सर देखा गया कि निर्देशक मूल फिल्म से सीन दर सीन कॉपी करने में ही सारी होशियारी दिखाते हैं। वह मूल फिल्म की आत्म को भूल जाते हैं। इस फिल्म के साथ भी ऐसा ही हुआ है। सूरज और जेनी के बीच प्रेम पनपने वाली सीन्स में न तो भाव नजर आते हैं और न ही भावनाएं। इस बीच हाई नोट्स पर बजने वाला पार्श्व संगीत रह रहकर उत्साहित के बजाए परेशान करता है।
इन दोनों किरदारों के बीच का आकर्षण इस कॉपी पेस्ट में कहीं खो सा जाता है। एक किरदार के रूप में सूरज की तन्हाई और बेबसी उत्सुकता जगाती है, लेकिन जैसे उसके अतीत की परतें खुलती है तो फिल्म एक नएपन के बजाए किसी पुराने ढर्रे पर चलती दिखती है।
आप इसे कई सारी फिल्मों की चरबा समझकर भुला भी सकते हैं, लेकिन रणदीप हूडा की एक्टिंग ऐसा होने नहीं देती। उन्होंने फिर से काफी अच्छा अभिनय किया है। उन पर एक बाॠक्सर का किरदार जमता है। ऐसी संभावनाएं दिखती हैं कि उन्हें लेकर कोई स्पोर्ट्स फिल्म बनाई जाए। बाकी अभिनेताओं की तरह उन्होंने भी अपनी फिजीक पर बहुत काम किया है। खासतौर से इस फिल्म में उन्होंने अपनी कसरती बदन को किसी बॉक्सर की भांति ही बना लिया है।
दूसरे छोर पर काजल अग्रवाल बहुत से मौके होने के बावजूद कुछ खास नहीं कर पातीं। उन्हें देख वाकई लगता है कि वह केवल एक्टिंग ही कर रही हैं। उन्हें इस रोल में देख ‘लफंगे परिंदे’ की पिंकी पाल्कर के किरदार की याद आती, जिसे दीपिका पादुकोण ने बड़े ही अच्छे ढंग से निभाया था। रणदीप के कोच के रूप में मामिक बेअसर दिखे और अनिल जॉर्ज बस पूरी फिल्म में गुस्सा ही करते रहे।
एक प्रेम कहानी में अच्छे गीत-संगीत की ख्वाहिश भी इस फिल्म से पूरी नहीं हो पाती। दीपक तिजोरी सिर्फ मूल फिल्म का आईडिया कॉपी करने से इतर अगर अपना थोड़ा बहुत कौशल भी कुछ दिखाते तो बात बन सकती थी। उनका निर्देशन इतना ज्यादा कमजोर है कि अब शायद ही कोई इस फिल्म का रीमेक बनाने की सोचे। लगता है कि ‘आलवेज’ फिर से एक बार देखनी पड़ेगी।
रेटिंग : **
सितारे : रणदीप हुडा, काजल अग्रवाल, मामिक, यूरी सूरी, अनिल जॉर्ज
निर्देशक : दीपक तिजोरी
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